भाजपा और कांग्रेस में बढ़ती दूरियां
भारत के वर्तमान राजनीतिक हालातों में फिलहाल यही समझ आ रहा है कि केंद्र में या तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनेगी या भाजपा के। लेकिन ये दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियां देश में जिस राजनीतिक विघटन की नींव रखती नजर आ रही हैं वह किसी के हित में नहीं है। दोनों ही पार्टियां एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में लगी हैं वह राजनीतिक विश्लेषकों को भी चिंता में डालने वाला है। ऐसा नहीं है कि यह देश स्वस्थ राजनीतिक संस्कृति और परंपराओं का साक्षी नहीं रहा है। लेकिन यूपीए सरकार के कार्यकाल और अब एनडीए सरकार के समय जिस प्रकार देश की सर्वोच्च पंचायत, राजनीतिक पार्टियों की मनमानी का शिकार हो रही है वह चिंता में डालने वाला घटनाक्रम है। यूपीए सरकार के समय संसदीय सत्रों को जिस प्रकार भाजपा बाधित करती थी लगभग उसी रास्ते पर अब कांग्रेस भी चल रही है। उलटबांसियों के इस खेल को देश का नागरिक बड़ी लाचारी और हताशा के साथ देख रहा है और राजनीति में पक्ष और विपक्ष के बीच बढ़ती दूरियां और पनपती अस्वीकार्यता के कारणों को जानने का प्रयास कर रहा है। इन दूरियों के अपने खतरे हैं। इन खतरों के परिणाम बहुत गहरे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विरोध का अपना महत्व है, लेकिन केवल विरोध के लिए विरोध करने और विपक्ष या सरकार को जबरदस्ती कटघरे में खड़ा करना किसी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार जिस तरह से एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए यह सिद्ध करने की कोशिश हो रही है कि हमारे भ्रष्टाचार से बड़ा तुम्हारा भ्रष्टाचार है या हम तुमसे अधिक ईमानदार है, इससे देश की जनता में नैराश्य भाव ही बड़ रहा है। आम सहमति और सहयोग जैसे शब्द संसद के किसी कौने में जाकर सिसक रहे हैं। कल्पना करें कि यदि सांसदों के वेतन-भत्तों पर यदि बात हो तो कैसे सभी पार्टियां के सुर एक हो जाते हैं। फिर विकास और जनता से जुड़े मुद्दों पर यह एकता क्यों नहीं दिखलाई जाती। डरावना प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि कहीं ये दूरियां स्थायी न हो जाएं और किसी बाहरी खतरे से निपटने के नीतिगत मसले भी ऐसे ही हंगामों की भेंट न चढ़ने लगें।
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