विवेकानंद का हिन्दुत्व और धर्मांतरण
आगरा में चंद तथाकथित बंग्लादेशी मुस्लिमों ने
काली माता की पूजा करके हवन किया तो उसकी लपटें देश विदेश की मीडिया में सुर्खियां
बन गईं। बहस का जो दौर शुरू हुआ, उसमें हर नेता-अभिनेता हिन्दुत्व का
विशेषज्ञ बन गया। ऐसे में याद आते हैं स्वामी विवेकानंद जिन्होंने हिन्दुत्व का
केवल गहराई से अध्ययन ही नहीं किया बल्कि उसे अपने जीवन में भी उतारा। अतः
हिन्दुत्व और धर्मांतरण पर स्वामी विवेकानंद के बिना कोई निष्कर्ष निकालना ठीक
नहीं है।
शिकागो की धर्म सभा में स्वामी विवेकानंद ने
विश्व को हिन्दुत्व की आधुनिक व्याख्या से परिचित कराते हुए कहा, ’’संसार
में सन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद करता हूं,
धर्मों
की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि
हिन्दुओं की ओर से धन्यवाद देता हूं... मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान
है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीडित और
शरणार्थियों को आश्रय दिया। हम लोग सब धर्मों के प्रति सहिष्णुता में केवल विश्वास
ही नहीं रखते, वरन् सब धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते
हैं। (वि.सा.खं-1, पृ-34)’’ 122 वर्ष पहले दिया
गया यह वक्तव्य सरलतम शब्दों में हिन्दुत्व और उसके आचार-व्यवहार को समझने के लिए
संभवतः सर्वाधिक उपयुक्त है। इससे स्पष्ट है कि हिन्दुत्व में आस्था रखने वाला
व्यक्ति, अन्य मतों और संप्रदायों के प्रति भी पूरी श्रृद्धा रखता है और
धार्मिक विश्वास के आधार पर उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकता। यह हिन्दू का प्राकृतिक
गुण है। इस सर्वोत्तम गुण के बावजूद स्वामी विवेकानंद के समय भी हिन्दुत्व,
भारत
के बाहर से आए मजहबों के लिए घृणा और धिक्कार का पात्र था। अतः हिन्दुओं में
आत्मविश्वास जागृति हेतु वे कहते हैं, ’’संपूर्ण विश्व पर हमारी मातृभूमि का
महान ऋण है। एक-एक देश को लें तो भी इस पृथ्वी पर दूसरी कोई जाति नहीं है, जिसका
विश्व पर इतना ऋण हो जितना कि इस सहिष्णु और सौम्य हिन्दू का.... आओ! हम सब अपने
आचरण से संसार को दिखा दें कि संसार की कोई भी भाषा इससे महान शब्द का आविष्कार
नहीं कर पायी है। ....मैं स्वयं को हिन्दू कहने में गर्व का अनुभव करता हूं। हम उन
महान ऋषियों के वंशज हैं जो संसार में अद्वितीय रहे हैं।(उति.जा.पृ-39,98)’’
हिन्दू
और हिन्दुत्व के संदर्भ में स्वामी जी का एक-एक कथन सत्यता और मार्मिकता दोनों को
प्रतिपादित करता है। वे हिन्दू को औरों से श्रेष्ठ मानने के पीछे एक महत्वपूर्ण
तथ्य प्रकट करते हुए कहते थे- ’’संसार की सभी जातियों में एक हम ही हैं
जिन्होंने कभी दूसरों पर सैनिक विजय प्राप्ति का पथ नहीं अपनाया।’’
तो समस्या कहां है? क्या विवेकानंद
के कथन आज के समय में अप्रासंगिक हो चले हैं? धर्मांतरण और घर
वापसी जैसे विषयों पर कहां भ्रम है? इसका गंभीर परीक्षण करने के लिए इतिहास
में जाना होगा। 712 ई. में सिंध पर इस्लाम का पहला आक्रमण हुआ।
उसके बाद गजनी आया और लौट गया लेकिन, मुहम्मद गौरी ने दिल्ली में अपना राज्य
स्थिपित कर किया। बाद में पठान और मुगलों ने भी भारत में इस्लाम को मजबूती दी।
मजबूती की यह इमारत कैसे भयानक अत्याचारों की नींव पर खड़ी हुई उसे मुस्लिम
इतिहासकारों ने भी माना है। इसी दौरान गैर मुस्लिमों के लिए ’काफिर’
शब्द
आया। ’कुफ्र’ और ’काफिर’ की गलत व्याख्या
करके काफिरों की धरती भारत को ’दारुल हरब’ से ’दारुल
इस्लाम’ में बदलने के लिए हिन्दुओं का बलपूर्वक धर्मांतरण किया गया और जो
नहीं माना उसे मौत के घाट उतारा गया। इस संदर्भ में विवेकानंद का कथन उल्लेखनीय
है- ’’जब तक इस्लाम धर्म की लहर भारत में नहीं आई थी, तब
तक यहां के लोग यह जानते तक न थे कि ’धर्मिक अत्याचार’ किसे
कहते हैं।(वि.सा.खं-1,पृ. 283)’’ उनका यह कथन भी
उल्लेखनीय है- ’’मुसलमान लोग इस दृष्टि से सबसे संकुचित और
संप्रदायवादी हैं। उनका घोष वाक्य है- अल्लाह एक है और मुहम्मद उसके पैगंबर हैं।
इसके अतिरिक्त जो कुछ है वह न केवल बुरा है, अपितु नष्ट हो
जाना चाहिए। इस घोष वाक्य पर आस्था न रखने वालों को तुरंत मार डालना चाहिए। जो कुछ
उसकी उपासना पद्ति से भिन्न है उसे तुरंत नष्ट कर देना चाहिए। कोई पुस्तक उनसे
भिन्न उपदेश देती है तो उसे जला डालना चाहिए। पांच सौ वर्षों तक प्रशांत महासागर
से अटलांटिक महासागर तक रक्त की धारा बहाई गई। यही है इस्लामवाद। (उ.जा.पृ-157)’’
इतिहास
गवाह है कि उस भयानक दौर में भी हिन्दुओं ने कभी अपनी पराजय स्वीकार नहीं कि और
सदैव उन आक्रमणों और अत्याचारों का विरोध किया। परिणाम स्वरूप 1757
में प्लासी युद्ध में अंग्रेजों की जब विजय हुई तब दो-तीन इस्लामी राज्य कुछ मीलों
की परिघि तक ही स्थापित थे।
प्लासी युद्ध की समाप्ति के साथ भारत में
अंग्रेजों का राज्य स्थापित हुआ और ईसाई मिशनरियों ने अधिकारपूर्वक भारत में
प्रवेश किया। उन्होंने भारत को अपनी तरह से जांचा परखा, गंवारों और अनपढ़ों
का देश घोषित किया और उनका उद्धार करने के लिए हिन्दुओं का ईसाईकरण करने की आंधी
चलने लगी। उल्लेखनीय यह है कि मुस्लिमों से उन्होंने पर्याप्त दूरी बनाए रखी। यह
ठीक है कि भारत में ईसाइयत को स्थापित करने के लिए खून-खराबे का इतिहास नहीं है
परंतु झूठ, छल, फरेब, प्रपंच और धोखे
के अनगिनित किस्से भरे पड़े हैं। भारत में ईसाई मिशनरियों के क्रिया-कलापों की
गंभीर आलोचना स्वामी विवेकानंद ने ही नहीं बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी,
प्रथम
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और डॉ. भीमराव अंबेडकर तक ने की है। ये सभी राजनीति
की सीमाओं से बंधे थे फिर भी भारत में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों के खिलाफ अपने
मन का आक्रोश रोक नहीं सके। लेकिन स्वामी विवेकानंद ने विश्व मंच पर भारत को बदनाम
करने और भारत में हिन्दू समाज का धर्मांतरण करने में लगी मिशनरियों का जमकर विरोध
किया। विवेकानंद साहित्य, खण्ड-1, पृष्ठ 277,
288 पर,
वैश्विक
स्तर के साथ ही भारत में भी ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों के प्रति उनका क्षोभ
उजागर होता है। वे कहते हैं- यह सत्य नहीं है कि मैं किसी धर्म के विरुद्ध हूं। यह
भी उतना ही असत्य है कि में भारत में ईसाई प्रचारकों के प्रति कटुता रखता हूं
किन्तु मझे उनके द्वारा भारत के विरुद्ध प्रचार करके अमेरिका में घन एकत्रित करने
के कतिपय उपायों पर घोर आपत्ति है। वे बताते हैं कि- एक ईसाई सज्जन को मेम्फिस में
मैंने यह प्रचार करते सुना है कि भारत के प्रत्येक गांव में नन्हें-नन्हें शिशुओं
की हड्डियों से भरा एक तालाब होता है। वे पूछते हैं- ’’आखिर हिन्दुओं
ने ईसा के इन चेलों का क्या बिगाड़ा है कि वे प्रत्येक ईसाई बच्चे को सिखाते हैं कि
हिन्दू दुष्ट, पतित एवं भयंकर राक्षस होते हैं।’’ ईसाई
मिशनरियों के क्रिया कलापों से दुखी होकर वे कहते हैं कि ईसाई मिशनरियों ने इस
धरती पर सबसे सभ्य और सुहृदय समाज को हतोत्साहित करने और पीढ़ा पहुंचाने का कार्य
किया है। वे मानते थे कि हिन्दुओं की सौम्यता, सहिष्णुता,
शांतिप्रियता
उसका बड़ा विशेष गुण है लेकिन वही उसको नुकसान भी पहुंचा रहा है। इसलिए वे ईसाई
मिशनरियों को चेताते हुए कहते हैं कि तुमसे भारत के मुसलमानों से ऐसा कहने का
(धर्मांतरण का) साहस नहीं होता क्योंकि तुम्हें डर है कि तब तलवारें निकल आयेंगी।
भारत सहित दुनिया में जैसे-जैसे शिक्षा का
प्रसार हो रहा है वैसे-वैसे तर्कवाद का दायरा बढ़ रहा है। इस्लाम में तर्क के लिए स्थान
नहीं है और ईसाइयत हर तर्क को अपने नजरिए से पेश करती है। हिन्दू धार्मिक आस्थाएं
सदैव मानव और विश्व कल्याणकारी सुधारों को स्थापित करने के लिए युगानुकूल
अनुसंधानों की आग्रही रही हैं। यहां कुछ भी अंतिम नहीं है। सत्य और मानव कल्याण के
लिए तार्किक आधार पर कुछ भी नया स्वीकारा जा सकता है। इसी विशेषता के कारण
हिन्दुत्व दुनिया के सभी धर्म, मत, पंथ, संप्रदाय
के साथ बिना किसी विरोध और टकराव के रह सकता है। अतः स्वामी जी ने इस्लामवाद और
ईसाईयत से स्पष्ट कहा- ’’हमारा धर्म हमारे पास रहने दो।’’
स्वामी जी के जीवन का अधिकांश भाग हिन्दू
अवधारणाओं और विश्वासों को गौरवशाली स्थान पर स्थापित करने में लगा। उनका ज्ञान
अत्यंत गूढ़ एवं तार्किक निष्कर्षों पर आधारित था। अतः वे हिन्दुत्व के सर्वाधिक
प्रामाणिक प्रचारक और सुधारक दोनों थे। हिन्दू समाज की दुर्बलताएं भी उन्हें ज्ञात
थीं तभी तो हिन्दू युवाओं का आह्वान करते हुए वे कहते हैं- बलशाली बनो, संगठन
करो, कर्म करो। वे कहते हैं- ’’तुम्हें केवल पुराने ऋषियों से सीखने
तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। तुम्हें स्वयं ऋषि बनना होगा। (उ.जा.पृ-196)’’
स्वतंत्र भारत में धर्मनिरपेक्ष संविधान द्वारा
प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की भ्रामक व्याख्या करते हुए ईसाई मिशनरियों
द्वारा हिन्दुओं का निर्बाध धर्मांतरण जारी रहा वहीं मजहब के नाम पर बने पाकिस्तान
के बावजूद शेष भारत को दारुल इस्लाम बनाने के प्रयास भी जारी रहे। हर क्रिया की
बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना प्राकृतिक नियम है। अतः स्वामी विवेकानंद के
दिखाए मार्ग पर चलता हुआ हिन्दू समाज का एक बड़ा हिस्सा आज संगठित होकर अपने बल को
तौल रहा है। धर्मांतरण के विरुद्ध यही बल कभी ’शुद्धि आंदोलन’
बनकर
प्रकट हुआ, आज ’घर वापसी’ के रूप में
प्रकट हो रहा है। सत्य के पक्ष में तर्क कितना भी छोटा हो, प्रभाव छोड़ता ही
है।
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