"हिन्दू" इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानते - सर वीएस नायपाल

भारतीय हिन्दुओं पर सर वी. एस. नॉयपाल की टिप्पणी सटीक थी। लगभग तीन दशक पहले उन्होंने कहा था, 'भारत में यह सचमुच बड़ी समस्या है। हिन्दू लोग इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानते।' फिर नासमझी से लैस कुछ का कुछ बोलते, करते रहते हैं। ऐसी गतिविधियों को निष्फल रहना ही है।
उदाहरणार्थ, क्या हिन्दुओं ने इस पर सोचा है कि भारत में मुस्लिम नेता सेक्युलरिज्म को नारा बनाते हैं, जबकि इंग्लैंड में सेक्युलरिज्म को ही चुनौती देते हैं! यह सामान्य तथ्य है कि मुस्लिम लोग सेक्युलरिज्म को इस्लाम-विरोधी मानते हैं। अत: वे सेक्युलर नहीं हैं, न होना चाहते हैं, परन्तु हिन्दू नेताओं की इसलिए निन्दा करते रहते हैं कि वे पर्याप्त सेक्युलर नहीं!
प्रो. मुशीर-उल-हक ने अपनी पुस्तक 'पंथनिरपेक्ष भारत में इस्लाम' (इंडियन इन्स्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, शिमला, 1977) में नोट किया था कि यहां सेक्युलरवादियों के पास मुसलमानों को सेक्युलर दिशा में प्रवृत्त करने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। वह स्थिति आज भी नहीं बदली है।
मुसलमानों, और विशेषकर इस्लाम के बारे में हिन्दू बुद्धिजीवियों, नेताओं में अज्ञान और अहंकार का दारुण मिश्रण बना रहा है, जिसका भयंकर दंड समय-समय पर केवल हिन्दू जनता भोगती है। पंजाब, प. बंगाल, कश्मीर में यह हो चुका है। शेष कई इलाकों में भी हो रहा है।

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भारत में तमाम सेक्युलर विमर्श मिथ्याचारी, पाखंडी है। इसने सच से बचने, छुपाने और झूठ फैलाने की परंपरा बनाई है। यह हर उस बिंदु पर होता है जिससे कहीं न कहीं इस्लाम जुड़ा है। उदाहरण के लिए, 1947 के तुरंत बाद सब जानते थे कि पूरे देश के मुस्लिमों ने पाकिस्तान बनाने का समर्थन किया था। पाकिस्तान भारत के सभी मुसलमानों के लिए बना था। अत: 1947 के बाद भी भारत में रह जाने वाले मुसलमानों के लिए किसी दावे या शिकायत की गुंजाइश नहीं बची थी। फिर भी जो मुस्लिम यहीं रह गए, उनमें 1965-70 तक यह शर्म बाकी थी- कि उन्होंने देश को तोड़ा, हिन्दुओं को चोट पहुंचाई, और फिर पाकिस्तान गए भी नहीं। वे इसके लिए हिन्दुओं का एहसान भी मानते थे। पर उस पीढ़ी के गुजरते-न-गुजरते नए मुस्लिम नेताओं ने फिर वही शिकायती राजनीति मुस्लिमों में भरनी शुरू कर दी। इस बीच, सेक्युलर, वामपंथी, गांधीवादी, नेहरूवादी हिन्दू नेताओं ने इतिहास को विस्मृत ही नहीं, विकृत भी कर दिया। फलत: आज फिर वही स्थिति हो गई, जिसमें हिन्दुओं को दबाते हुए मुसलमानों के मनमाने दावों का प्रचार हो रहा है।

डॉ. आंबेडकर ने इसे बखूबी समझा था- 'मुस्लिम राजनीति अनिवार्यत: मुल्लाओं की राजनीति है और वह मात्र एक अंतर को मान्यता देती है- हिन्दू और मुसलमानों के बीच अंतर। जीवन के किसी सेक्युलर तत्व का मुस्लिम राजनीति में कोई स्थान नहीं है।' यह डॉ. आंबेडकर ने अस्सी साल पहले लिखा था। इसमें न कुछ बदला है, न बदलने की कोशिश की जाती है। फलत: यहां के मुसलमान खुद को अंतरराष्ट्रीय उम्मत का अंग मान कर खिलाफत, फिलिस्तीन, बोस्निया, ईराक आदि के लिए हाय-तौबा और हिंसा, हंगामा करते रहते हैं। दूसरी ओर, हिन्दुओं को अपने ही देश में, अपने सबसे पवित्र तीर्थों पर भी अधिकार नहीं देते।
इसलिए, दो टूक सचाई यह है कि पूरी दुनिया में असली अल्पसंख्यक हिन्दू ही हैं। तब हिन्दुओं का भी अपना एक देश क्यों नहीं होना चाहिए? भारत में हिन्दू धर्म-संस्कृति-समाज का विशिष्ट अधिकार क्यों न हो? वह क्यों हिन्दू-विरोधी मतवादों, मजहबों को हिस्सेदारी दे? इन प्रश्नों को उन करोड़ों पीडि़त हिन्दुओं की नजर से भी देखें कि उसे अपनी ही मूल भूमि के पाकिस्तान और बंगलादेश बन जाने पर क्या मिला? उसकी तुलना में भारत में रह गए मुसलमानों को यहां क्या-क्या हासिल है?
हिंसक बयानबाजियां करके भी राज-पाट भोगते रहे-
आजम खान, अकबरुद्दीन ओवैसी, जाकिर नाईक आदि कितने ही मुस्लिम नेता हिन्दू देवी-देवता, हिन्दू धर्म, समाज और भारत सरकार का भी मजाक उड़ाते रहते हैं। भारतीय सेना पर घृणित टिप्पणी करते हैं। संयुक्त राष्ट्र को चिट्ठी लिख शिकायतें करते हैं। जब कि यहां मुसलमानों के लिए अलग कानून, आयोग, विश्वविद्यालय, मंत्रालय आदि बनते गए। मानो देश के अंदर अलग देश हो। इमाम बुखारी, शहाबुद्दीन, फारुख, महबूबा, कमाल फारुकी आदि असंख्य नेता उग्र, हिंसक बयानबाजियां करके भी राज-पाट भोगते रहे। मगर सबकी भाषा ऐसी रहती है मानो वे भारत से अलग, ऊपर कोई हस्ती हों! जबकि वे भारत से ली हुई सुख-सुविधाओं, शक्तियों का उपभोग करते हैं। इसकी तुलना में पाकिस्तान में हिन्दुओं का क्या हाल है?


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इस राजनीति को डॉ. आंबेडकर ने सटीक नाम दिया था- ग्रवेमन राजनीति। उनके अनुसार, 'ग्रवेमन पॉलिटिक का तात्पर्य है कि मुख्य रणनीति यह हो कि शिकायतें कर-कर के सत्ता हथियाई जाए।' सो, डॉ. आंबेडकर के अनुसार, मुस्लिम राजनीति शिकायतों से दबाव बनाती है। निर्बल के भय का ढोंग रचती है, जबकि दरअसल ताकत का घमंड और प्रयोग भी करती है। इस राजनीति को स्वतंत्र भारत में भी दशकों से दुहराया जाता देखा जा रहा है। किस किताब को पढ़ने देना, किस लेखक को रहने देना, बोलने देना, कैसा कानून बनाना, न बनाना आदि में देश के संविधान को अंगूठा दिखाया जाता है। इस बीच, जैसे अभी मोदी-शाह-भाजपा को मुसलमानों का दुश्मन, वैसे ही गांधी-नेहरू-कांग्रेस को भी पहले बताया जाता था। ऐसे झूठे प्रचारों पर अनजान मुस्लिम विश्वास कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें सचाई बताई नहीं जाती। उनके नेता उन्हें तमाम झूठी, एकतरफा बातें कहकर मजहब के नाम पर भड़काते हैं। क्या इतने लंबे अनुभव से भी हिन्दुओं को सीखना नहीं चाहिए? सेटेलाइट टी.वी. और इंटरनेट से वे दुनिया भर की घटनाएं देखते हैं। वे समझ रहे हैं कि मुस्लिम नेता केवल इस्लाम की ताकत बढ़ाने में लगे रहे। वे लोकतंत्र और सेक्युलरिज्म का दुरुपयोग कर हिन्दुओं को दोहरा मूर्ख बनाते हैं! इसलिए, वस्तुत: अब हिन्दुओं को खुलकर मुसलमानों के सामने अपनी तमाम शिकायतें रखनी चाहिए, और सबका हिसाब मांगना चाहिए।
एक बात साफ है कि इस्लाम संबंधी किसी समस्या को केवल राष्ट्रीय, प्रांतीय स्तर पर देखने-समझने, सुधारने का प्रयास निरर्थक है। कम्युनिज्म की तरह यह अंतरराष्ट्रीय विचारधारा और समुदाय है, जिस का उन्हें घमंड भी है। अत: उन्हें विशेष सुविधाएं आदि से संतुष्ट करने के प्रयास व्यर्थ ही नहीं, हानिकारक भी होते हैं। उससे उन का घमंड और अलगाव और बढ़ता ही जाता है। गांधी काल से लेकर आज तक के तमाम तुष्टीकरण प्रयासों ने यही किया है।
विशेष संस्थाएं, सुविधाएं, आदि देते रहने का संदेश यह जाता है मानो मुस्लिम पक्ष उपेक्षित है। क्योंकि मुस्लिम नेता, प्रवक्ता सदैव शिकायतें करते हैं, और अन्य हिन्दू-विरोधी वामपंथी, सेक्युलरवादी, उन का जम कर प्रचार करते हैं। इस बीच हिन्दू पक्ष की कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ती। मुसलमानों के जिहाद, बलात् कन्वर्जन एवं अन्य मतवादी कारनामों से कोई शिकायत नहीं की जाती। जबकि कश्मीर में इस्लामी अलगाववाद, वहां से हिन्दुओं का खात्मा, देश भर में कहीं भी बात-बात पर हिंसा, लव-जिहाद, तथा गोधरा, मराड, किश्तवाड़, कैराना जैसे कई इलाकों में हिंसा और परेशान कर हिन्दुओं को मारने, भगाने की गतिविधियां, तथा मुस्लिम नेताओं द्वारा देश-विरुद्ध बयानबाजियां आदि हिन्दुओं को लंबे समय से क्षुब्ध करती रही हैं। पर हिन्दुओं की शिकायत पर कोई बात नहीं होती। इस एकतरफापन से राष्ट्रीय एकता या सद्भाव नहीं बन सकता।


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हिन्दू शिकायतों को भी स्पष्ट रखने से मुस्लिम पक्ष पर भी स्थिति सुधारने की जिम्मेदारी आएगी। वह न्याय-भावना का दबाव महसूस करेगा। कुछ जनमत की भी चिंता करेगा। दोतरफा और खुले संवाद का शिक्षात्मक मूल्य भी है। हिन्दू-मुसलमान दोनों में भ्रमित लोग उससे सीखते हैं। उन्हें पता चलता है कि दोनों पक्षों की मांगें, शिकायतें क्या हैं? तब मीडिया में भी संतुलन रहता है। एकतरफा शिकायत का प्रचार तो पूरा मामला और विकृत करता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था- हिन्दुओं का सामाजिक बल कमजोर और मुसलमानों का मजबूत है। इसे समान बनाए बिना कभी शान्ति नहीं हो सकती। श्रीअरविन्द ने भी मुसलमानों को तुष्ट करने के प्रयास को मिथ्या कूटनीति बताया था। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता उपलब्ध करने की कोशिश करने के बदले हिंदुओं को सच्चे राष्ट्रीय कार्य में लगने के लिए कहा था, जिस में विवेकशील मुसलमान धीरे-धीरे स्वयं जुड़ जाते। लेकिन 'एकता का पैबंद लगाने की कोशिशों ने मुसलमानों को बहुत ज्यादा अहमियत दे दी और यही सारी आफतों की जड़ रही है।' उनके शब्दों में, 'मुसलमानों को भारत माता की समान संतान समझते हुए, हर तरह से, सच्चे हृदय से समानता का व्यवहार करो। यदि वे भाई की तरह मिलना चाहें तो और पहलवान की तरह लड़ना चाहें तो, दोनों स्थितियों में।' प्रेम-सद्भाव दोतरफा ही हो सकता है। शिकायत भी हो तो बराबरी से करना उचित है। तभी दोतरफा जिम्मेदारी बनती है। यह भी न भूलें कि इस्लामी नेता सदियों से राजनीति में पगे हैं। उन के मतवाद में ही राजनीति अभिन्न है। उन्हें भारत पर लंबे समय शासन करने का स्मरण और घमंड भी है। अत: हर हाल में वे हिन्दुओं से अधिक सिद्धहस्त और आत्मविश्वासपूर्ण भी रहे हैं। इसीलिए यहां अनगिनत विशेष सुविधाएं उठाकर भी अपने को पीडि़त और हिन्दुओं को उत्पीड़क बताते रहते हैं। जबकि केरल से कश्मीर, और असम-बंगाल से गुजरात तक, बार-बार हिंसा, अपमान, संहार और विस्थापन केवल हिन्दुओं को झेलना पड़ा है। इस शिकायत की सुनवाई कब और कहां होगी?

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यदि इस पर चुप्पी रही तो इस्लामी नेता उसी दबंगई से ग्रस्त रहेंगे, जिस पर टैगोर ने उंगली रखी थी। हिन्दुओं ने झूठी कोशिशें बहुत कर लीं। एक बार सच्ची कोशिश करके देखें। मुसलमानों को भी भारतमाता की संतान, और अपना भाई मान कर व्यवहार करें। उनके मतवादी मिथ्या-अहंकार को उसकी असली जगह दिखाएं। तभी वे हिन्दू नेताओं का विश्वास करेंगे और पुनर्विचार करेंगे। वरना हिन्दुओं को दुर्बल, लोभी, आरामपसंद आदि समझकर कट्टरपंथी तत्व उनको, और देश को चोट पहुंचाते रहेंगे। हिन्दुओं को अपने महान गुरुओं, शास्त्रों की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। सचाई को आंख मिलाकर देखना चाहिए। तभी समाधान की दिशा मिलेगी।
साभार- www.panchjanya.com /लेखक- शंकर शरण/ date- 31/12/2019
( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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