छात्र बनाम राजनीति
जेएनयू में हुए कन्हैया प्रकरण ने जहां देशद्रोह और देशभक्ति की बहस राजनीतिक क्षेत्र में छेड़ी है, वहीं एक और बहस जो इन दिनों शिक्षा परिसरों में चल रही है, वह है कि क्या छात्रों को महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में आकर अपनी पढ़ाई पर ही पूरी तरह ध्यान देना चाहिए या राजनीतिक क्रियाकलापों में भी सक्रीय होना चाहिए? क्या हमारे शिक्षण संस्थान विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित योग्य विद्वानों को सामने लाने के केंद्र होने चाहिए या राजनीतिक नेताओं को तैयार करने के? विभिन्न राजनीतिक दलों के छात्र संगठनों की शाखाओं की इन शिक्षा परिसरों में उपस्थिति और उपयोगिता पर भी प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। इन प्रश्नों के इतर यह बात दीगर है कि आज ऐसे ही छात्र संगठनों से अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ करके अनेक छात्र नेता विभिन्न राजनीतिक संगठनों के शीर्ष पदों पर ही नहीं पहुंचे बल्कि केंद्र और राज्यों की सरकारों में भी सक्रीय भूमिका निभा रहे हैं। इतना ही नहीं स्वतंत्रता से पूर्व भी देश को दिशा देने वाले अनेक प्रमुख नेताओं ने अपनी राजनीतिक यात्रा को अपने विद्यार्थी जीवन में ही प्रारंभ कर दिया था। अतः यह कहना कि विद्यार्थी जीवन में राजनीतिक यात्रा प्रारंभ करने से छात्र के विद्याध्यन पर विपरीत असर ही पड़ेगा, ठीक नहीं है। रहा सवाल राजनीतिक दलों द्वारा छात्रों को अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करने का तो इसके लिए निश्चित ही कुछ मर्यादाएं सुनिश्चित की जानी चाहिए। राजनीति और शिक्षा के घालमेल की भी सीमाएं निर्धारित की जानी चाहिए। देश और समाज में चल रही हलचलों से विद्यार्थियों के सरोकारों को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि ऐसे मामलों की समझ जिस गहराई के साथ विद्यार्थी जीवन में विकसित होती है वैसी बाद में नहीं हो पाती। आवश्यकता है कि छात्रों को इसके लिए जागरूक और प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वे अपने जीवन की दिशा को बहुत समझदारी से तय करें न कि किसी राजनीतिक दल या लोगों की प्रेरणा या बहकावे में आकर।
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