क्या केंद्र सरकार वाकई एरोगेंट है?

पिछले दिनों नगा विद्रोही नेताओं के साथ केंद्र सरकार के शांति समझौते पर आक्रामक रुख अपनाते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने केंद्र सरकार को एरोगेंट कहा। हिन्दी में एरोगेंट के अर्थ होते हैं- अक्खड, हठी, अभिमानी, हेकड़। जाहिर है लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में ऐेसे शब्दों के लिए कोई जगह हो ही नहीं सकती। यदि ऐसा होने का आरोप किसी सरकार पर लगता है तो उस सरकार को अपने लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पण के स्तर पर विचार करना चाहिए। यह निश्चित ही गंभीर मामला है। यह बात तब और भी गंभीर हो जाती है जब हाल ही में लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता देश में आपातकाल की संभावनाओं पर टिप्पणी कर चुके हों। सोनिया गांधी की आपत्ति शांति समझौते को लेकर कदापि नहीं है बल्कि इस समझौते के बारे में असम, मणिपुर और अरुणांचल प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को अंधेरे में रखने से है। समस्या से प्रभावित इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को निश्चित ही विश्वास में लिया जाना चाहिए था। नरेंद्र मोदी सरकार कहती भी रही है कि वह लोकतंत्र के स्वस्थ मूल्यों को लेकर चलेगी और किसी राज्य में यदि दूसरे दल की भी सरकार है तो वहां के मुख्यमंत्रियों को संबंधित राज्य से संबंधित मामलों के समाधान खोजते समय साथ में रखेगी। इसके बावजूद नगा शांति समझौते में केंद्र सरकार द्वारा वहां के मुख्यमंत्रियों को अंधेरे में रखना आश्चर्य में डालता है। सोशल मीडिया के सहारे एक कौतिहल का निर्माण करके जिस प्रकार से इस समझौते को देश के सामने लाया गया उससे यह तो स्पष्ट होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस ऐतिहासिक घटना का श्रेय अपनी सरकार के अलावा किसी और को कदापि देना नहीं चाहते थे। यह स्वाभाविक भी है और इससे किसी का विरोध भी नहीं होना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही वे रास्ते भी निकाले जाने चाहिए जो विपक्ष दलों की राज्य सरकारों के मान- सम्मान और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हों। यदि ऐसा नहीं होगा तो आज नहीं तो कल होने वाले लोकतांत्रिक मूल्यों के विघटन को रोकना असंभव हो जाएगा। देश की जनता को इस एनडीए सरकार से बहुत अपेक्षाएं हैं और लोकतंत्र को भी।

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