"ब्राह्मण" "एक मुद्दा" या "एक साजिश" !

दैनिक भास्कर से साभार
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  प्रस्तुत है - डॉ शैलेश सिंह का एक विचारोत्तेजक लेख -

 भारतीय राजनीति में   जिन दो शब्दों का   सदुपयोग या     दुरुपयोग   किया गया     है वे हैं मनुवाद और     ब्राह्मणवाद। इन दो शब्दों का प्रयोग करके हिंदू समाज में न सिर्फ विभाजन पैदा किया गया बल्कि उनके वोट में भी बिखराव किया गया। उत्तर भारत मे खास तौर   पर उत्तर प्रदेश में   अचानक ही राजनैतिक   मुख्य मुद्दा बन गया है। आज ब्राह्मणों के महत्व और उनकी भूमिका पर खूब राजनैतिक प्रबुद्धों द्वारा चिंतन व बहस जगह-जगह हो रही है। अचानक ही इनसे दूर व सतर्क रहने व कहने वाले इनसे गठजोड़ की होड़ में है। कल तक जिन्हें "मनुवादी" कहकर हांसिये पर धकेला जा रहा था, आज उनमें, खासतौर से बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस, सपा और अन्य राजनीतिक दलों को भगवान परशुराम की मूर्ति के बहाने इनमें "कस्तूरी" नज़र आने लगी है।
इन दलों में हमेशा हंसिये पर रहने वाले व अपमान का घोल पीते रहे ब्राह्मण नेता जिनको लगता है कि उनका इन दलों में ‘राजयोग’ फिर से चमक उठा है। कैसी विडंबना है कि मन में राम बगल में ईंटे जहां मिले वहां बहुतई पीटें वाली कहावत के आधार पर आज इनकी प्रचंड सामाजिक ताकत और काबलियत के कसीदे पढ़े जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के खिलाफ "तिलक, तराजू और तलवार इनमें मारो जूते चार" व कुछ अन्य दल जबरदस्त जातीय नफरत पैदा करके खड़े हुये हैं, आज वह इनका सहारा लेकर देश व प्रदेश में सत्ता पर कब्जा करने की राजनीति करने निकले हैं। यह अलग बात है कि यूपी के बाहर अन्य प्रदेशों में इस फार्मूले की चाल पकड़ ली गई थी पर यह कार्ड वहां चल नहीं पाया। 

 पिछले कई दशको में इन दलों द्वारा ब्राह्मणों से दूरी बनाये रखने की मानों प्रथा शुरू हो गई थी, पर भाजपा ब्राह्मणों को अपना परंपरागत सहयोगी और समर्थक ही नहीं मानती रही है बल्कि ब्राह्मणों को संगठन, सरकार व अन्य जगहों पर भी सर्वाधिक महत्व व लाभ के पदों को देकर सुशोभित किया जाता रहा है और आज भी कर रही है। जैसे-
आज भी केंद्र व सभी प्रदेशों की सरकारों में सर्वाधिक मंत्री ब्राह्मण है। सर्वाधिक ब्राह्मण जिलाधिकारी व अन्य प्रशाप्र पदों पर, केंद्र व राज्यों में संविधानिक पदों पर भी सर्वाधिक पदों पर ब्राह्मण ही शोभा बढ़ा रहे है। 
शिक्षा जगत खास तौर पर केंद्र व राज्य विश्वविद्यालयों में सर्वाधिक ब्राह्मण कुलपतियों के रूप में शिक्षा के माध्यम से देश की सेवा कर रहे है।
लेकिन एक अपराधी विकाश दुवे के मारे जाने के बाद "उपेक्षित है" का माहौल तैयार किया जा रहा है। कांग्रेस ने तो एक ब्राह्मण नेता को इसका मिशन दिया है। सपा व बहुजन समाज पार्टी भी उससे पीछे नहीं है। 
चाणक्य भी एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, आमजन मानस के चिति में यह स्थापित है कि...
जब "अमात्य चाणक्य" और "चंद्रगुप्त" का सम्मिलन होता है तभी अब तक के सबसे प्रभावी और पराक्रमी राष्ट्रवादी शासन (मगध)को दुनिया देख पाती  है।
चाणक्य के वंशजो ने सदियों से सामाजिक राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में चली आ रही ब्राह्मणों की उपयोगिता सिद्घ की है। किंतु समाज में एक तबका ऐसा भी है जो हमेशा ब्राह्मणों से नफरत और असहज महसूस करता आया है, बल्कि उसका पूरा सामाजिक ताना-बाना और अस्तित्व ही ब्राह्मण विरोध पर टिका है। इन कई दशकों में उत्तर भारत में और विशेष रूप से यूपी में इसकी कमान कट्टर दलित नेताओं के हाथ में ही रही है, और आज भी चन्द्रशेखर 'रावण' जैसे युवा संभाल रहे है, लेकिन इनके तौर तरीके बदल गए हैं। इनका ब्राह्मणों के खिलाफ आक्रामक संघर्ष का एक इतिहास है। इस विषय पर इतिहासकारों, राजनीतिज्ञों, सामाजिक चिंतकों ने समय-समय पर अपने-अपने नजरिये से खूब लिखा है। ब्राह्मण हमेशा से अपनी सामाजिक कूटनीतिक राजनीतिक संरचना और उसकी उपयोगिता के कारण दूसरों का ध्यान खींचता आ रहा है। यही कारण है कि कल तक ब्राह्मणों के खिलाफ सर्व समाज में जहर उगलने वाले आज अपनी रणनीतियां पलटकर इनका समर्थन पाने के लिए कूटनीति से इनका प्रयोग कर रहे हैं। इस समय सपा, बसपा का ब्राह्मण प्रेम से बड़ा ज्वलंत उदाहरण और क्या होगा ?
‘ब्राह्मण’ गैर ब्राह्मणों में नकारात्मक प्रतिक्रिया पैदा करते आए हैं। उत्तर व दक्षिण भारत में समय-समय पर ब्राह्मणों के खिलाफ बड़े-बड़े आंदोलन हुए हैं। इन अवस्थाओं की पुष्टि के लिए अनगिनत दृष्टांत प्रस्तुत किये जा सकते हैं। 
जनसंख्या अनुपात में सबसे कम होने के बावजूद ब्राह्मण का अस्तित्व हमेशा से एक जटिल चुनौती कायम किये हुए है। शास्त्रों और समाज में ब्राह्मण को विशिष्ट व पुज्यनीय की मान्यता दी गई है। किंतु आज भी यह झगड़ा कायम है कि देश के आबादी प्रतिशत में सबसे कम ब्राह्मण देश की अस्सी प्रतिशत जगहों पर कैसे बैठे हैं? इसे कैसे उखाड़ फेंका जाए? आजादी के बाद से आज तक यह अनुपात घटाने के लिए जो आंदोलन चलाए जा रहे हैं उनके सकारात्मक परिणाम क्यों नहीं सामने आए? राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या गुट, ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का इस्तेमाल या विरोध, अपने राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ती या सलामती के लिए करते आए हैं, इसे कौन नहीं जानता और समझता? उत्तर भारत में और खासतौर से यूपी में इन कई दशकों में तिलक तराजू ब्राह्मण या ब्राह्मणवाद का विरोध हमेशा से चरम पर रहा है।
अतीत में देखें तो उत्तर व दक्षिण भारत में जाति-भेद का पहला शिकार ब्राह्मण ही हुआ है, इसलिए इसका विरोध आंदोलन के रूप में सामने आया। दलित समाज के नेताओं ने इसे अपना खास हथियार बनाया और ब्राह्मण विरोध की कमान संभाली और धीरे-धीरे यह आंदोलन कई धाराओं में चल पड़ा। लेकिन यह भी हमेशा हुआ है कि इनके विरोध के साथ-साथ गैर ब्राह्मण भी ब्राह्मणों के पक्ष में उतरे। जिससे आज तक यह सिद्घ नहीं किया जा सका है कि ब्राह्मण रंगभेद या अन्य तरीके से पक्षपात या दूसरों पर अत्याचार के लिए दोषी हैं। लंबे विरोध के बाद ब्राह्मण विरोधी ताकतों में आज भी उनके लिए कोई परिवर्तन नहीं आया है। सारे राजनीतिक दलों में ब्राह्मणों का विरोध करते-करते अचानक उनका समर्थन हासिल करने अचानक हवा चलती तो है पर केवल उपभोग के लिए।
आने वाले समय मे सभी दलों को राजनीतिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ सकता है। मौजूदा हालात तो इसी की तरफ जा रहे हैं जिनकी असली परीक्षा तो चुनाव में हो जाएगी। 
बैसे यह सभी जानते है कि ब्राह्मण ही वामपंथी, समाजवादी, राष्ट्रवादी आदि विचारों के पोषक या शोषक रहें हैं....
और आगे क्या होता है या होगा, प्रतीक्षा कीजिए, समय सभी सवालों का जबाब देगा !
 
- डॉ शैलेश सिंह

लेख में प्रस्तुत विचारों के लिए लेखक स्वयं जिम्मेदार हैं।
लेखक स्वतंत्र स्तंभकार एवं गोरखपुर विश्वविद्यालय में विधि प्राध्यापक हैं।


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