शिक्षक के लिए आवश्यक ”नैतिकता”

भारत के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक प्रवाह में गुरु को विशेष स्थान और महत्व प्रदान किया गया है। भारत में गुरु वह है जो अपने शिष्य के जीवन पथ को ज्ञान और विवेक से प्रकाशित करते हुए उसके व्यक्तित्व को इस प्रकार गढ़े कि शिष्य पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों का सफलता पूर्णक निर्वहन कर सके। शिक्षक के उत्तरदायित्व समय सीमा या स्थान से बंधे नहीं हैं। शिष्य के कल्याण के लिए वह अपने हितों का कहीं भी और कभी भी निस्वार्थ भाव से बलिदान करने को तत्पर रहता है। आज के भौतिकतावादी युग में किसी का वास्तविक अर्थों मंे गुरु होना सरल नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं। अतः आशा करनी चाहिए कि हम गुरु बनने का प्रयास करते हुए कम से कम एक अनुकरणीय शिक्षक बन सकें। इसके लिए शिक्षक के जीवन में वैचारिक और व्यवहारिक दोनों स्तरों पर नैतिकता का विशेष महत्व है।
यह नैतिक मूल्यों की दर्दनाक नीलामी का दौर है। संयम, शांति, सद्भावना, सहचर्य, सहयोग, सहिष्णुता, त्याग, तपस्या और बलिदान जैसे शब्द अपने अर्थ खो रहे हैं। पाश्चात्य विद्वान मैक्स मूलर कहता है कि भारत के क्या कहने, वहां की तो पनिहारिन भी संसार की निस्सारता को जानती है। वही भारत आज निरर्थक भौतिकवादी एश्वर्य की चकाचैंध में जीवन के वास्तविक अर्थों से दूर होकर हताशा और निराशा के भंवर में फंसता जा रहा है। इसका प्रभाव शिक्षकों पर भी है। यह प्रभाव उनके आचार-विचार में परिलक्षित भी होने लगा है। इसके कारण ही वह भूल जाता है कि उसने जो रास्ता चुना है वह सामान्य मनुष्य का रास्ता नहीं है, उस रास्ते पर विशेष लोग ही चलने की हिम्मत जुटा पाते हैं, उसे अपनी विशेषता का भान नहीं है। इस प्रभाव के कारण आज का शिक्षक अपने को गुरु स्थापित करने या कहलाने के लिए बड़े जतन करता है, लेकिन गुरु के गुणधर्म का निर्वहन करने में संकोची हो जाता है। परिणाम स्वरूप अपने विद्यार्थियों के बीच अनुकरणीय शिक्षक होने का अधिकार भी वह खो बैठता है। ऐसे मैं नैतिकता अर्थात नैतिक मूल्य उसे वह अधिकार दिलाने में बड़े सहायक हो सकते हैं। सवाल यह है कि एक शिक्षक के लिए नैतिकता का अर्थ क्या है?
मनुष्य ने सभ्यता का पाठ पढ़ने के साथ ही नैतिक आचरण प्रारंभ किया। मानव जीवन का कोई क्षेत्र इससे अछूता नहीं है। दुनिया के प्रत्येक देश, समाज, संप्रदाय और धर्म ने, अपने लिए नैतिकता के पैमाने निर्धारित किये। मानव विकास में सभ्य समाज के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नैतिकता को प्रमुख घटक माना गया। सत्य, अहिंसा, प्रेम, सेवा और शांति को भारत सहित दुनिया भर के सभ्य और संस्कारी समाज के आवश्यक और अभिन्न मानव मूल्य माने गए, जो संपूर्ण चराचर जगत में नैतिकता को आधार प्रदान करने का कार्य करते हैं। बर्बर और सभ्य समाज की पहिचन इन्हीं पांच तत्वों की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर पूर्ण रूप से निर्भर करती है। ये सभी के लिए अनिवार्य हैं। कोई इनसे अछूता नहीं रह सकता। फिर शिक्षक इनकी उपेक्षा कैसे कर सकता है, जबकि वह तो समाज का विशेष व्यक्ति होता है, समाज का मार्गदर्शक होता है, उनके भ्रमों का निवारक होता है। अतः नैतिकता के मानदंड पर शिक्षक का आचार-व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि वह अपने शिष्यों सहित सर्व समाज के लिए भी अनुकरणीय हो। अतः शिक्षक के लिए नैतिकता, उच्च आदर्शों का भाव लिए, उन शब्दों के अर्थों को अपने आचार-व्यवहार में अपनाना है जो उसे अपने काम में दक्ष और पूर्णतः समर्पित होने के लिए प्रेरित करते है। अपने कार्य की गुणवत्ता को बढ़ाने और निखारने के लिए उसे स्व अनुशासन में बांधते हैं। ऐसा करने के लिए उसे उच्च कोटि के उत्तरदायित्व की भावना से परिपूर्ण करते हैं। परिस्थितियां अनुकूल हैं तो ठीक लेकिन प्रतिकूल भी हैं तो अपने कर्तव्यों का निर्वहन अपनी संपूर्ण क्षमता और योग्यता से प्रसन्नता पूर्वक करवाते हैं। इसके लिए जरूरी है कि उसके अंदर अच्छाई और बुराई, सही या गलत में से किसी एक के चुनाव करने की क्षमता हो और वह उसका सही समय पर उपयोग कर सके। उसके चरित्र की शुद्धता चैबीस कैरेट सोने की तरह दमकनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि उसका उसका हृदय शुद्धता, प्रसन्नता, श्रद्धा, विनम्रता, मित्रता, दयालुता, ममता, समता, समानता, क्षमाशीलता से परिपूर्ण हो। उसका व्यक्तित्व आकर्षक, सौम्य, सहिष्णु, सकारात्मक और अनुशासित हो। उसका आचरण विश्वसनीय, उत्तरदायित्वपूर्ण, नवोन्मेषी, धैर्यवान, प्रतिबद्ध, निष्पक्ष, पारदर्शी और सादगी का प्रतीक हो। जो शिक्षक अपने हृदय, व्यक्तित्व और आचरण को मनसा, वाचा, कर्मणा इन मानव मूल्यों की तपिश प्रदान कर अपनी नैतिकता को निखारते हैं, वे ही इस संसार में गुरु बनने के पथ पर अग्रेसर होते हैं। तब उनके आचार-व्यवहार उनके सभी शिष्यों सहित मानव जाति के लिए अनुकरणीय हो जाते हैं।
शिक्षक का दायित्व विद्यार्थी को केवल ज्ञान देने तक सीमित नहीं है। बल्कि उस ज्ञान का विवेकपूर्ण उपयोग करने की योग्यता और क्षमता का विद्यार्थी के अंदर विकसित करना भी शिक्षक का कर्तव्य है। अब तक के अनुभव बताते हैं कि वे ही विद्यार्थी अपने ज्ञान का विवेकपूर्ण उपयोग कर पाते हैं जिनके शिक्षकों ने उच्च नैतिक मूल्यों को अपने और उनके जीवन में स्थापित किया होता है। उच्च ज्ञान से युक्त किंतु नैतिक मूल्यों से विरत विद्यार्थी समाज और राष्ट्र दोनों के लिए समस्या बन सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि नैतिकता के विषय में अत्यंत सावधानी बरती जाए। यदि शिक्षक के अंदर नैतिकता का अभाव है तो उसका स्वाभाव आक्रामक और विद्यार्थियों के साथ सामंजस्य बैठा पाने में असमर्थ होगा, ऐसे में वह कक्षा में भय, तनाव, और चिंता का ही प्रसार करेगा और समाज में असंतोष और हताशा का। ऐसा शिक्षक किसी भी कारण से किसी भी विद्यार्थी के प्रति छोटी-बड़ी दुर्भावना से ग्रसित हो कर विद्यार्थी को अपनी कुंठित आकांक्षाऔं की स्वार्थपूर्ति के लिए नुकसान पहुंचा सकता है। वह उसे  शारीरिक दंड, गाली-गलौच और भावनात्मक उत्पीड़न के द्वारा प्रताड़ित कर सकता है जिसके परिणाम निश्चित ही कल्याणकारी नहीं हो सकते। किसी भी शिक्षक के लिए ऐसे कार्य पाप के समान होने चाहिए। यह अत्यंत आवश्यक है कि विद्यार्थियों के साथ शिक्षक के संबंध प्रत्येक परिस्थिति में स्नेहिल, मधुर और प्रोत्साहनपूर्ण हों। नशाखोरी तो शिक्षक के व्यक्तित्व पर बड़ा दाग जैसी होती है।
लेकिन ये नैतिकतायें तब धराशाही होती नजर आती हैं जब प्राथमिकता से लेकर उच्च शिक्षा स्तर तक के शिक्षक घरेलू ट्यूशन पढ़ाने के लिए विद्यालय में अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाते हैं। कई बार अपने खिलाफ होने वाली अनुशासनात्मक कार्रवाईयों को शिक्षक संगठनों के बल पर धता बता देते हैं और स्वच्छंद आचरण करने लगते हैं। यहीं से स्वस्थ समाज की मर्यादाएं खंडित होना प्रारंभ हो जाती हैं। इसलिए कई देशों में शिक्षक संगठनों ने ही अपने सदस्यों के लिए उच्च नैतिकता युक्त सार्वजनिक आचरण को अनिवार्य कर दिया है। यदि वे इसके विपरीत आचरण के दोषी पाये जाते हैं तो उन्हें विद्यालय या विभागीय कार्रवाई से तो दो-चार होना ही होता है साथ ही शिक्षक संगठनों को भी जवाब देना होता है। भारत में किसी भी स्तर के शिक्षकों के लिए नैतिक आचरण नियमावली अभी दूर की कौड़ी है। लेकिन विद्यालय परिसर की पवित्रता और शुचिता को बनाए रखने के साथ ही शिक्षक की गरिमा के संरक्षण के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। अतः आवश्यक है कि हम शिक्षक स्वतः प्रेरणा से स्वनिर्मित आचरण नियमावली का कड़ाई से पालन करें। क्योंकि सम्मान मांगने या छीनने से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना होता है। इसके लिए नैतिकता के तराजू पर अपने आचरण को नियमित रूप से तौलना अत्यंत आवश्यक है। ध्यान रखना होगा कि एक शिक्षक की नैतिक प्रतिबंद्धताएं विद्यार्थियों के प्रति तो हैं ही साथ ही उन विद्यार्थियों के माता, पिता, परिवार और अभिभावकों के साथ, उसके अपने शिक्षण कार्य, समाज और राष्ट्र के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। तभी तो शिक्षक को राष्ट्र का निर्माता कहा जाता है। हम विचार करें कि हम शिक्षक हैं तो इस कसौटी पर कहां तक खरे उतरते हैं, लेकिन पूर्ण सत्यता के साथ!

Anant Vishwendra Singh is faculty with SAMKALP Coching for paper 4 in civil service exams.

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