चिंता की बात- गरम होती सर्दी
जनवरी के इस महीने में चिल्ला जाड़ों की जगह दोपहर में न सहन होने की स्थिति तक गरम मौसम से पर्यावरण विज्ञानी खासे चिंतित हैं। हालांकि मौसम विभाग के अनुसार आगामी 10 या 12 तारीख से उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में वर्षा होने की संभावना के चलते सर्दी अपना रंग दिखा सकती है, फिर भी मौसम का बदला हुआ यह रुख मानव और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य के लिए तो प्रतिकूल है ही साथ ही फसलों को भी भारी नुकसान पहुंचाने वाला है। कुछ कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु में आ रहा यह परिवर्तन खेती के लिए दशकों में तैयार हुए उन्नत बीजों को भी बेकार कर सकता है। बदलता मौसम बाजार को भी चिंतित करने वाला है। कपड़ों से लेकर खाने तक की वस्तुएं बाजार को अस्थिर कर रही हैं। इसके बवजूद अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इस समस्या से निपटने के लिए गंभीर नहीं दिखती। बीते दिसंबर माह में पैरिस में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यह साफ देखने को मिला जब संपन्न देशों द्वारा विकासशील और गरीब देशों के प्रति अपनाए गए रुख ने हताश ही किया है। विकसित देश किसी भी सूरत में अपनी प्राथमिकताओं में बदलाव करने के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरी ओर दुनिया भर के आर्थिक संसाधनों पर कब्जे की होड़ नेे परिस्थितियों को और अधिक चिंताजनक बनाया है वहीं परमाणु और हाइड्रजन तकनीकि का मारक हथियारों के लिए होने वाला प्रयोग, गंभीर दिशा की ओर जा रहे हैं। हाल ही में उत्तर कोरिया द्वारा किये गए हाइड्रोजन बम के परीक्षण ने अनेक स्थानों पर भूकंप को जन्म दिया। इस परीक्षण का पर्यावरणीय असर लंबे समय तक नहीं रहेगा ऐसा नहीं कहा जा सकता। हालांकि यह एक छोटा परीक्षण ही था, कल्पना करें भविष्य में होने वाले बड़े परीक्षणों की? सरकारों की अपनी मजबूरियां हो सकती, होती भी हैं, लेकिन इस क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों के प्रयास भी कमोवेश सीमित ही नजर आते हैं और अधिकांश आम नागरिक आज भी पर्यावरण के प्रति उपेक्षित भाव ही बनाए हुए है। समस्या केवल सर्दी तक ही सीमित नहीं है। बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि का कहर या अत्यधिक गरमी में झुलसती धरती, जब कभी भी तबाही मचाने वाले भूकंपों की चेतावनियां, यही कह रही हैं कि अब बस करो। तुम प्रकृति को नहीं जीत पाओगे। जिन वैज्ञानिक उपलब्धियों के बल पर तुम प्रकृति पर विजय पाने की चेष्टा कर रहे हो वे प्रकृति की नाराजगी के आगे कुछ भी नहीं हैं। जिसे तुम विकास समझ रहे हो वह दरअसल विनाश की ओर ले जाने वाला रस्ता है जहां तुम्हारी पीढ़ियां सुरक्षित नहीं हैं। अतः जितनी जल्दी हो सके हमें अपने विकास के मानक और दिशा दोनों बदलने होंगे। प्रकृति विरोधी विकास किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। वह मानव हितैशी नहीं, विरोधी है। इस धरती पर यदि हमें अनंतकाल तक रहना है तो प्रकृति से समंजस्य बनाकर ही रहा जा सकता है। इंटरनेट के इस दौर में अपेक्षा की जा रही है कि मनुष्य ऐसे मसलों पर अधिक संवेदनशील होकर वैचारिक आदान-प्रदान के द्वारा किसी समाधान की ओर बढ़ेगा। लेकिन दुर्भाग्यवश इंटरनेट और सोशल मीडिया पर भी इस संदर्भ में विमर्श अत्यधिक सीमित ही हैं। कहीं न कहीं इस लिहाज से हम प्रकृति और उससे जुड़े तमाम मसलों के प्रति घोर स्वार्थपूर्ण असहिष्णुता से ग्रसित ही नजर आते हैं। आवश्यकता है, विकास की परिभाषाएं गढ़ने वालों के नजरिए में बदलाव की। हमें घनघोर स्वार्थी नजरिए से जिसमें केवल और केवल अपने फायदे तक ही चिंतन सीमित है से मुक्त होना होगा। तभी हम आने वाली पीढ़ियों को प्रकृति प्रेम का पाठ पढ़ा सकते हैं, तभी हम प्राकृतिक और कृत्रिम सुख और प्रसन्नता के अंतर को महसूस कर सकते हैं। इसके बाद ही प्रकृति के साथ हमारा सामंजस्य बनेगा और हम भविष्य के संभावित प्राकृतिक प्रकोपों से बच सकेंगे।
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