दिल्ली के दंगल का संदेश

चुनावी राजनीति यूं तो सदैव ही आम और खास की जिज्ञासा जागरण का कारण रही है लेकिन दिल्ली के वर्तमान विधानसभा चुनाव जिस स्तर पर पहुंच गए हैं, वह स्तर कम ही देखने को मिलता है। इस चुनाव में पार्टियां महत्वपूर्ण नहीं हैं, नेता महत्वपूर्ण हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू जिसने देश-दुनिया को लगातार अपने प्रभाव में ले रखा है उसे, राजनीति में नौसीखिये अरविंद केजरीवाल ने चुनौती दी है। मतदाता किसे समर्थन देंगें या एक बार फिर दोनों को बगलें झांकने पर मजबूर करेंगे, ऐसे प्रश्नों के करण कौतुहल का स्तर लगातार बड़ रहा है। मीडिया में चल रही बहसें और चुनावी सर्वेक्षणों के महत्व अपनी जगह हैं लेकिन जिस गति से नई और पुरानी राजनीतिक पार्टियां और नेता लगातार राजनीतिक वर्चस्व बनाने के लिए तिकड़म भिड़ाने लगे हैं और आम मतदाता के सामने भ्रामक स्थितियां पैदा करने में माहिर हो गए हैं, तो मानना चाहिए कि अब समय आ गया है जब देश के मतदाताओं को भी राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रशिक्षित किया जाए। भारत की जनता की बड़ी समस्या है राजनीतिक जागरूकता का अभाव। यदि आम नागरिक राजनीतिक रूप से जागरूक हो तो न तो उसे चुनाव से पहले भरमाया जा सकता है और न ही चुनाव के बाद बहलाया जा सकता है। लेकिन राजनीतिक जागरूकता के लिए बड़ा रास्ता तय करना होगा जो शैक्षिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जागरूकता के पड़ावों से होकर गुजरता है। भारत जैसी विविध सभ्यताओं और धार्मिक मान्यताओं वाली लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली के लिए यह बहुत आवश्यक है। अन्यथा विकासजैसे अन्य अनेक लुभावने शब्दों का भ्रमजाल पैदा कर नेता अपने तानाशाही रवैये को लंबे समय तक बनाए रखने में कामयाब होते देखे जा सकते हैं। निसंदेह यह गंभीर मुद्दा है। दिल्ली का विकास कौन करेगा इस सवाल के जवाब में सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं के बयानों में कोई खास अंतर नहीं है। जाहिर है सरकार होगी तो वह विकास के कुछ न कुछ तो काम करेगी ही। अहम बात यह है कि जनता को राजनीतिक दलों से केवल विकास की दरकार है या कुछ औरभी बातें हैं जो जनता चाहती है कि उसके हित में हों लेकिन राजनीतिक पार्टियों के प्रायोजित शोर में वह कुछ औरसामने ही नहीं आ पाता। अतः गंभीर विश्लेषण करें तो पाते हैं कि दिल्ली का यह दंगल राजनीतिक जागरण की नई धारा बहाने का संदेश दे रहा है। मीडिया और सामाजिक संगठनों को इस दिशा में काम प्रारंभ करना चाहिए। 

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